कहते हैं ने परिवर्तन जीवन का आधार है और यही परिवर्तन हमने मोबाइल इंडस्ट्रीज़ में भी देखा है। कभी यहां यूरोपियन और अमेरिकन ब्रांड का राज तो आज चीनी फोन की चलती है लेकिन जिस तरह से माहौल बदल रहा है ऐसे में लगता है कि शायद बाजार फिर से बदलने को तैयार है। परंतु आपने कभी सोचा है कैसे भारतीय मोबाइल बाजार बदला और यहां अचानक कैसे चीनी मोबाइल फोन यहां आए और छा गए। चलिए आज इसी दास्तान को मैं बयान करता हूं।
1995-2003 चमका नोकिया का सितारा
31 जुलाई 1995 का वह दिन भारतीय मोबाइल इतिहास के लिए बहुत खास कहा जा सकता है जब भारत में मोबाइल सर्विस की शुरुआत हुई थी। सर्विस की शुरुआत सबसे पहले कोलकाता से किया गया था। जहां पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने तत्कालीन यूनियन टेलीकॉम मिनिस्टर सुख राम को कॉॅल किया था। उस वक्त यह कॉल कोलकाता के राइटर्स बिल्डिंग से नई दिल्ली के संचार भवन में किया गया था। यह कॉल Modi Telstra नेटवर्क मोबीनेट पर की गई थी। जो कि भारत के मोदी ग्रुप और ऑस्ट्रेलिया टेलीकॉम का ज्वाइंट वेंचर था। यहीं से भारत में मोबाइल का सफर शुरू होता है। हालांकि जहां तक भारत में पहली फोन कंपनी की बात है तो कोई नोकिया कहता है तो कोई मोटोरोला। यहां यह बताना जरूरी है कि इस वक्त तक वैश्विक बाजार पर मोटोरोला का राज था। परंतु 1998 में फिनिश कंपनी नोकिया ने उसे पीछे छोड़ दिया और फिर नोकिया मुड़कर कभी पीछे देखा ही नहीं। आलम यह हो गया कि 60 फीसदी से भी ज्यादा बाजार पर नोकिया का राज कायम हो गया। हालांकि शुरुआत में सिर्फ नोकिया, मोटोरोला, एरिक्सन और अल्काटेल जैसे की कुछ ब्रांड थे। 1998 के बाद भारतीय मोबाइल बाजार काफी तेजी से विकास करने लगा और जल्द ही सैमसंग, एलजी, सोनी और पैनासोनिक जैसे ब्रांड भी आ पहुंचे। इसे भी पढ़ें: 6 महीनों में बंद हो सकती हैं 35-40 हजार मोबाइल की दुकानें, जानें क्या है कारण
इस वक्त दुनिया को दिख गया था कि मोबाइल के लिए भारत बहुत बड़ा बाजार है लेकिन विकास उतनी तेजी से नहीं हो रही थी जितना की चाहिए था। क्योंकि भारत में मोबाइल सेवा के लिए इनकमिंग कॉल पर भी शुल्क चुकाना पड़ता था। परंतु 2003 तक भारत में न सिर्फ मोबाइल पर अउाट गोइंग कॉल शुल्क कम हो चुके थे बल्कि इनकमिंग कॉल का शुल्क भी खत्म कर दिया गया। इसके बात से मोबाइल बाजार दिन-दुना और रात चौगुना विकास करने लगा।
इस वक्त तक बाजार में एक और बदलाव आया। मोबाइल में मल्टीमीडिया फीचर जोर पकड़ने लगा। अर्थात, म्यूजिक प्लेयर, एफएम रेडियो और कैमरे की मांग बढ़ने लगी और यहीं से चाईनीज फोन की दस्तक भारत में हुई। इसे भी पढ़ें: ब्रांड Samsung की अनकही कहानी: जानें कैसे बना ट्रेडिंग कंपनी से विश्व का नंबर एक मोबाइल निर्माता!
2003-2007 अनब्रांडेड चाइनीज फोन की दस्तक
बाजार पर नोकिया का राज था और इसके बाद सोनी, मोटोरोला, सैमसंग और एलजी जैसी कंपनियां भी अपनी पकड़ मजबूत कर चुकी थीं। परंतु इनके फोन महंगे थे। ऐसे में सस्ते अनब्रांडेंड चाइनीज फोन ने दस्तक दी जो दिल्ली के गफ्फार मार्केट और लखनऊ के नाका सहित भारत के लगभग हर शहरों में अपनी पकड़ बनाने लगे। इनमें काफी तेज आवाज़ होती थी और खास कर मल्टीमीडिया फीचर्स पर जो होता था। हालांकि क्वालिटी बहुत ही खराब होती थी। ऐसे में फोंस की मांग तो थी लेकिन बड़े तौर पर चाइनीज फोन को लोग स्वीकार नहीं कर रहे थे और अब भी नोकिया, सैमसंग और सोनी ब्रांड ज्यादा पसंद किए जा रहे थे।
इसी वक्त भारतीय मोबाइल निर्माताओं ने कदम रखा। वैसे तो एक समय पर 100 से ज्यादा कंपनियां भारत में आ चुकी थीं लेकिन इनमें मोदी ग्रुप का स्पाइस मोबाइल, माइक्रोमक्स, कार्बन और लावा जैसी कंपनियां प्रमुख थीं जिन्होंने बड़े पैमाने पर भारत में इनवेंस्टमेंट किया। यहां से चाइनीज फोन की पकड़ और भी मजबूत हो गई। क्योंकि इस वक्त तक भारत में सिर्फ नोकिया फोन बनाता था और सभी कंपनियां बाहर से आयात करती थीं। खास कर भारतीय कंपनियां तो पूरी तरह से चीन पर ही निर्भर थीं लेकिन चाईनीज फोन अब भी अपने नाम से नही आ रहे थे। इसे भी पढ़ें: क्या आप अब भी करते हैं Nokia से प्यार? जानें नोकिया के बनने, मिटने और फिर बनने की कहानी
2007-2014 सैमसंग का राज और भारतीय कंपनियों की टक्कर
यहां से मोबाइल का एक नया दौर शुरू हो गया। इंडियन कंपनियों ने सबसे पहले डुअल सिम को अपनी ताकत बनाई जहां कमजोर नेटवर्क से परेशान लोग इनसे जुड़ने लगे। इसके बाद मल्टीमीडिया और एन्ड्रॉयड फोन ऑपरेटिंग सिस्टम का सहारा लिया। भारतीय कंपनियों का रिसर्च और डवलपमेंट पर कुछ भी खर्च नहीं था वे सीधा चीन से फोन इम्पोर्ट करते थे। इस वजह से फोन के दाम भी कम होते थे।
अब यहां से नोकिया अपने ढलान पर आ गया था और सैमसंग की पकड़ मजबूत होने लगी थी। वहीं कम प्राइस में ढेरों फीचर्स के नाम पर भारतीय निर्माताओं के फोन भी चल पड़े। नोकिया ने एन्ड्रॉयड को मना कर दिया और जनता ने नोकिया को। इसका सीधा फायदा सैमसंग और भारतीय कंपनियों को मिलने लगा। 2012 तक नोकिया मोबाइल बाजार में काफी पिछड़ गया और अपना नंबर एक का ताज सैमसंग के हाथों गंवा बैठा।
माइक्रोमैक्स, कार्बन और लावा जैसे ब्रांड भी नोकिया से आगे निकल गए। इस समय तक कोई भी चाइनीज फोन निर्माता सीधे तौर पर भारतीय बाजार में उपलब्ध नहीं था। वीवो-ओपो जैसी कंपनियां जिनकी अपनी फैक्ट्री चीन में थी वे भारतीय निर्माताओं के लिए फोन बनाने लगे। 2012 के बाद भारत में मोबाइल कंपनियों की स्थिति कुछ इस तरह थी। सैमसंग नंबर एक, माइक्रोम मैक्स नंबर 2, कार्बन नंबर 3 और लावा नंबर चार पर काबिज था। परंतु एक बार फिर से बाजार बदलने को तैयार था। भारतीय बाजार की रौनक चीनी कंपनियों को नजर आ गई थी। फीचर फोन के बाद स्मार्टफोन का बाजार बढ़ने लगा था और लोग फोन पर अब काफी पैसे खर्च करने लगे थे। सबसे पहले 2013 में चाइनीज कंपनी Gionee ने भारत में एंट्री की और इसके बाद से दूसरों के लिए भी दरवाज़े खुल गए।
2014-2020 चीनी निर्माताओं की राज
भारतीय मोबाइल बाजार का आकार बड़ा हो गया था और चीनी कंपनियों की नजर इस पर आ गई थी। जो कंपनियां पहले भारतीय निर्माताओं के लिए फोन बनाती थीं वही अब दस्तक देने को तैयार थीं। 2014 में Xiaomi ने भारत में कदम रखा। इसी साल Oppo और Vivo जैसी कंपनियां भी आ गईं। साल के अंत तक Oneplus भी आ चुका था। हालांकि इनमें सबसे अग्रेसिव रूप से शाओमी आया था। कंपनी ने ऑनलाइन के माध्यम से भारत में अपने कदम रखे जबकि ओपो-वीवो की शुरुआत ऑफलाइन से हुई। 2014-2015 तक ये धीमे-धीमे बढ़ रहे थे। इस वक्त तक भारत में 3जी नेटवर्क आ चुका था और 4जी को लेकर चर्चा जारी थी। ऐसे में हमारी बात जब भी भारतीय मोबाइल निर्माताओं से होती थी और हम पूछते थे कि 4जी फोन को कब तक ला रहे हैं तो उनका जवाब यही होता था कि अभी तो इंडिया में सही से 3जी ही नहीं है तो फिर 4जी कैसे चलेगा। जबकि एयरटेल, वोडाफोन और आइडिया जैसी कंपनियों ने अपनी 4जी सेवा कुछ जगहों पर शुरू कर दी थी।
इसमें कोई शक नहीं कि भारतीय मोबाइल निर्माता इस वक्त तक मजबूत स्थिति में थे लेकिन इस बात को भी मानना होगा कि वे समय को भांपने में असफल रहे। चीनी मोबाइल फोन निर्माता एक तरह से दरवाज़े के अंदर आ चुके थे बस उन्हें एक मौके का इंतजार था और यह मौका मिला सितंबर 2016 में।
5 सितंबर 2016 को रिलायंस जियो ने भारत में अपनी 4जी सर्विस की घोषणा कर दी। कंपनी ने एक साथ पूरे देश में 4जी वोएलटीई सर्विस की शुरुआत की और 3 महीने के लिए सभी सेवाएं मुफ्त कर दीं। बाद में इसे 3 महीने के लिए और बढ़ा दिया गया। वहीं खास बात यह थी कि 3जी के मुकाबले 4जी सेवा कई गुणा सस्ता थी और साथ में कॉलिंग पूरी तरह से मु्फ्त। यह दशहरा और दीवाली से ठीक पहले का समय था। जब बाजार फोन से भरा हुआ था। भारतीय निर्माता अपने फोन स्टॉक कर चुके थे दीवाली में बेचने के लिए ऑफर्स की घोषणा करने वाले थे। फोन का स्टॉक तो उनके पास था लेकिन वह 3जी था। कुछ 4जी था लेकिन उसमें सिर्फ एलटीई सपोर्ट था वोएलटीई नहीं। परंतु 6 सितंबर 2016 से भारत में सिर्फ 4जी वोएलटीई फोन की मांग शुरू हो गई। भारतीय निर्माताओं का स्टॉक धरा का धरा रह गया और एक झटके में वे बाजार से बाहर हो गए। यह चोट इतनी बड़ी थी कि इसके बाद वे उठ नहीं पाए।
वहीं वीवो-ओपो जैसे ब्रांड भारतीय कंपनियों के मुकाबले कई गुना ज्यादा बड़े थे और मौका मिलते ही उन्होंने इसे पूरी तरह से भुना लिया। 2017 का आलम यह था कि हर गली गूचे में वीवो और ओपो के बोर्ड नजर आने लगे। क्रिकेट से लेकर फुटबॉल और टीवी रियलिटी शो में भी ओपो-वीवो ही दिखने लगे।
भारतीय निर्माता भले ही गायब हो गए लेकिन कोरियन कंपनी सैमसंग का दबदबा कम नहीं हुआ था। परंतु शाओमी की अग्रेसिव प्राइसिंग और यूनिक मार्केटिंग सैमसंग के लिए के लिए परेशानी जरूर खड़ी करने लगा था और अंतत: 2018 में वो खबर आ गई जिसे लोग शायद पहले से जानते थे। वर्ष 2018 के आखिरी तीमाही में यह घोषणा कर दी गई कि सैमसंग को पीछे छोड़ शाओमी नंबर एक बन गया है और फिर यह फ़ासला बढ़ता ही गया। वहीं 2020 के शुरुआत में ही खबर आई के सैमसंग वीवो से पिछड़ कर नंबर तीन पर खिसक गया है। आप अगर देखेंगे तो पाएंगे कि आज भारतीय मोबाइल बाजार के लगभग 80 फीसदी हिस्से पर चाइनीज निर्माताओं का कब्ज़ा है जो दिन ब दिन बढ़ता ही जा रहा है।
क्या भारतीय कंपनियां उठ पाएंगी?
हालांकि बॉयकॉट चाइना की मांग तो उठ रही है लेकिन उनका बॉयकॉट इतना आसान नहीं है। क्योंकि आज ये भारत में इन कंपनियों के फोन निर्माण और वितरण में लाखों लोग जुड़े हैं जिसपर करोड़ो लोग निर्भर हैं। वहीं भारत में फोन निर्माण तो हो रहा है लेकिन फोन के लिए बड़े कॉम्पोनेंट्स चीन में ही बनते हैं। जैसे— डिसप्ले, बैटरी, प्रोसेसर रैम व मैमोरी आदि। और एक फोन में सबसे ज्यादा कीमत इन्हीं चीजों की होती है। रही बात भारतीय कंपनियों की तो कोशिश कर रहे हैं लेकिन उठना और उठ कर जीतना इस बार आसान नहीं होगा। क्योंकि उनके पास फोन निर्माण के लिए फैशिलिटी नहीं है और नही चीनी कंपनियों की तरह इन्वेस्टमेंट है। परंतु एक चीज जरूर कहा जा सकता है कि इस बार चीनी निर्माताओं को लेकिन भारतीय मोबाइल कंज्यूमर्स में गुस्सा है और शायद इसी का फायदा उन्हें मिले।